पुरुषार्थ की सार्थकता
जीवन के मर्मज्ञ ऋषियों ने संसार के नश्वर सुख व सीढ़ियों के परे अविनाशी एवं परिवर्तनशील शाश्वत आनंद के स्त्रोत आत्मा को खोजने व पाने का महत्व शास्त्रों में पग-पग प्रतिपादित किया था। आत्म असत्य है, नित्य है, ज्योतिस्वरूप और आनंदमयी है। उसको पा लेने के बाद फिर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता और इसको जान लेने के बाद फिर कुछ जान लेना नहीं रहता। मनुष्य के पुरुषार्थ की सार्थकता सुखों के अनावश्यक उपभोग में नहीं, बल्कि आत्मा को प्राप्त करने के प्रयासों में है।
The penetrating sages of life had propounded in the scriptures the importance of finding and finding the source of the eternal and everlasting bliss, the soul, beyond the mortal pleasures and stairs of the world. Self is unreal, eternal, light and blissful. After attaining it, nothing remains to be attained, and after knowing it, nothing remains to be known. The meaning of man's effort is not in the unnecessary consumption of pleasures, but in the efforts to attain the soul.
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भारत से समस्त विश्व में विद्या का प्रसार आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्यावर्त देश ही से प्रचारित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पेरिस अर्थात फ्रांस देश के निवासी अपनी बाईबिल आफ इण्डिया में लिखते हैं कि सब विद्या...
अश्वमेध यज्ञ महर्षि दयानन्द अश्वमेध के मध्यकालीन रूप से सहमत नहीं थे और न इसे वेद व शतपथ ब्राह्मण के अनुकूल समझते थे। महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में राजप्रजाधर्म में लिखा है कि राष्ट्रपालनमेव क्षत्रियाणाम अश्वमेधाख्यो यज्ञो भवति, नार्श्व हत्वा तदड्गानां होमकरणं चेति अर्थात् राष्ट्र का पालन करना ही क्षत्रियों का अश्वमेध यज्ञ है, घोड़े...