समपर्ण
स्मरण रखो मैं तुम्हारी आत्मा के सदृश्य हूँ। तुम जहाँ जाते हो वहाँ मैं जाता हूँ, तुम जहाँ रुकते हो वहाँ में रुकता हूँ। आओ मेरे ह्रदय से अपना ह्रदय मिला लो, उसे अपना बना लो, तब सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारी ह्रदय-गुहा की छाया और शांति में मेरा ही निवास है।'' इस प्रकार गुरु शिष्य के सभी पाप-संतापों को धों डालता है तथा अपने सान्निध्य से तदाकार होने का आनंद प्रदान करता है। सच्चे शिष्य की भाँति इन्हीं पलों में हम अपने समपर्ण द्वारा अपने अंदर के शिष्यत्व को जगाएँ तथा अपने महान् गुरु के कार्य को आगे बढ़ाएँ।
Remember I am like your soul. Wherever you go I go, wherever you stop I stay. Come join my heart with your heart, make it yours, then everything will be fine. In the shadow and peace of your heart-cavity, I reside." In this way, the Guru washes away all the sins and sorrows of the disciple and gives the joy of being merged with his company. In these moments, like a true disciple, let us awaken the discipleship within us by our dedication and take forward the work of our great Guru.
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भारत से समस्त विश्व में विद्या का प्रसार आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्यावर्त देश ही से प्रचारित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पेरिस अर्थात फ्रांस देश के निवासी अपनी बाईबिल आफ इण्डिया में लिखते हैं कि सब विद्या...
अश्वमेध यज्ञ महर्षि दयानन्द अश्वमेध के मध्यकालीन रूप से सहमत नहीं थे और न इसे वेद व शतपथ ब्राह्मण के अनुकूल समझते थे। महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में राजप्रजाधर्म में लिखा है कि राष्ट्रपालनमेव क्षत्रियाणाम अश्वमेधाख्यो यज्ञो भवति, नार्श्व हत्वा तदड्गानां होमकरणं चेति अर्थात् राष्ट्र का पालन करना ही क्षत्रियों का अश्वमेध यज्ञ है, घोड़े...