धर्मपरायण
कुछ लोगों ने अपना यह व्यवसाय बनाया होता है कि वे स्वयं तो कोई अच्छा कार्य करते नहीं अन्य सत्कार्य करने वालों से द्वेष करते हैं और उनके मार्ग में विघ्न डालते हैं। वे चारों ओर द्वेष से ऐसे घिरे रहते हैं, मनो द्वेष की मूर्ति हों। उनके मन में दूसरों के दुर्विचार, दुर्भावनाएँ और दुश्चिंतन ही विद्यामन रहते हैं। वे यदि किस पुण्यात्मा को देखते हैं, तो मन में सोचते हैं कि यह पुण्यों की सीढ़ी से नीचे गिर जाये। यदि किसी धर्म-परायण व्यक्ति पर उनकी दृष्टि पड़ती है, तो वे चाहते हैं कि यह धर्मध्वंसी बन जाये। यदि किसी को दुःखियों की सहायता करता हुआ पाते हैं, तो वे प्रेरणा देते हैं कि उन्हें मरने दो, ये तो मरने के लिए ही पैदा हुए हैं।
ऐसे दुश्चिन्तन द्वेषीजन दो-चार नहीं, पाप-सलाहें देकर सत्पुरुषों को और सद्धर्मपरायण नारियों को सन्मार्ग से च्युत करना चाहते हैं। यदि उनकी सलाह मानकर मनुष्य मार्ग-विमुख हो जाता है, तो नैतिक दृष्टि से उसकी मृत्यु हो जाती है।
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अश्वमेध यज्ञ महर्षि दयानन्द अश्वमेध के मध्यकालीन रूप से सहमत नहीं थे और न इसे वेद व शतपथ ब्राह्मण के अनुकूल समझते थे। महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में राजप्रजाधर्म में लिखा है कि राष्ट्रपालनमेव क्षत्रियाणाम अश्वमेधाख्यो यज्ञो भवति, नार्श्व हत्वा तदड्गानां होमकरणं चेति अर्थात् राष्ट्र का पालन करना ही क्षत्रियों का अश्वमेध यज्ञ है, घोड़े...